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    गाड़ियों में अश्लील गाना बजाने पर रोक राज्य सरकार का स्वागत योग्य निर्णय:-डॉ स्वयंभू सुलभ।

    ● अपनी संस्कृति को बचाने के लिए उच्छृंखलता पर लगाम लगाना जरूरी 
    ●अश्लील गानों की वजह से भोजपुरी भाषा भाषी क्षेत्रों की छवि पूरे देश में हो रही खराब
    ● गाड़ियों में अश्लील गाना बजाने पर रोक राज्य सरकार का स्वागत योग्य निर्णय
    ● इस अभियान को सफल बनाने में हर किसी का साथ जरूरी
    बिहार में ट्रक, बस, ऑटो में अश्लील गाना बजाने पर कार्रवाई किये जाने और गाड़ी का परमिट रद्द किये जाने का बिहार सरकार का निर्णय अत्यंत स्वागत योग्य निर्णय है। इससे निश्चित रूप से इस उच्छृंखलता पर लगाम लगेगी। 
    लेकिन इस आदेश का अनुपालन केवल पुलिस और प्रशासन की जवाबदेही नहीं है। केवल गाड़ियों में ही नहीं, सार्वजनिक स्थलों पर भी ऐसे फूहड़ गीत बजाने वालों और इन गानों पर झूमने नाचने गाने वालों का बहिष्कार करके हम सब भी सरकार के इस निर्णय को सफल बनाने में कारगर भूमिका निभा सकते हैं।
    हमारे देश के व्रत त्योहार हमारी परंपरा और संस्कृति की पहचान हैं। देश की अनेकता में एकता की जो झाँकी दिखाई देती है उसमें इन पर्व त्योहारों का विशेष योगदान है। पहले तो गांवों में वसंत पंचमी से ही फागुनी गीतों की बयार बहने लगती थी। महीने भर पहले से ही चौपालों पर ढोल मंजीरे की थाप के साथ जोगीरा गूंजने लगता था। फाग, मल्हार, झूमर, चैता और बारहमासा जैसे विभिन्न रागों में भारतीय लोक संस्कृति की बहुरंगी झलक दिखाई देती थी। साथ मिलकर गाने बजाने वाले लोगों के बीच आपसी प्रेम और सौहार्द भी खूब झलकता था। 
    बदलते दौर में फागुनी गीतों की जगह भोजपुरी के फूहड़ और अश्लील गीतों ने ले लिया। अश्लील गीत लिखने और गाने वालों ने सारी हदें पार करते हुए हमारी परंपरा और अस्मिता पर ही हमला बोल दिया। होली के रंग और होली के गीतों की मधुरता इस फूहड़ शोर में कहीं खोने लगी।
    फूहड़पन में आनंद लेने वाले चंद लोगों की वजह से अश्लील गीतों के सीडी, डीवीडी, आडियो, वीडियो और एलबम का बाजार चल निकला। डेक और डीजे पर भी ऐसे ही गीत गूंजने लगे। क्या शहर, क्या गांव... अपसंस्कृति के इस प्रदूषण ने हर जगह पांव फैलाना शुरू कर दिया। शादी ब्याह के पंडालों से लेकर बैंड बाजे वालों तक इन गानों की पैठ हो गई। टेम्पो, बस, ट्रक जैसे सार्वजनिक वाहनों में ऐसे गाने बेरोकटोक बजाये जाने लगे। पूजा पंडालों में इन गानों के तर्ज पर भक्ति गीत सुनाई देने लगे। मूर्ति विसर्जन के समय टोली बनाकर लड़कों का ऐसे गानों पर झूमना नाचना आम बात बन गई। आस्था और भक्ति भी इन अश्लील गानों की भेंट चढ़ने लगी। खासकर होली के समय तो हर चौक चौराहे पर ऐसा ही नजारा दिखने लगा। परिवार या बच्चों के साथ इन टोलियों के सामने से गुजरना शर्मिंदगी का विषय बन गया।
    समस्या इनके नाचने गाने से नहीं है। पर्व त्योहार तो अवसर ही होते हैं आनंद और उमंग के। समस्या उन फूहड़ गानों के बोल के साथ उनकी फूहड़ हरकतों से है। उन्हें होश नहीं है कि वे किस बात पर मग्न हो रहे हैं और ये गाने हमारी संस्कृति को किस गर्त्त में ले जा रहे हैं। 
    सस्ती लोकप्रियता के भूखे और पैसों के लिए अपनी भाषा की गरिमा को धूल में मिलाने वाले, ऐसे गीत लिखने और गाने वाले और अपनी गाड़ियों में ऐसे गीत बजाने वाले इस पीढ़ी को बरबाद करने पर तुले हैं। इन लोगों की वजह से भोजपुरी भाषा भाषी क्षेत्रों की छवि भी पूरे देश में खराब हो रही है।
    यहां बड़ा सवाल यह भी है कि इस प्रकार अश्लीलता फैलाकर हमारी मातृभाषा और हमारी संस्कृति के साथ खिलवाड़ करने का हक इन्हें किसने दिया। ये सरकार के सामने भी दोषी हैं और समाज के सामने भी। इन्हें दंड भी सरकार और समाज दोनों के द्वारा मिलना चाहिए। 
    यह समय की मांग है कि सरकार के इस निर्णय का खुलकर समर्थन करते हुए हम सब को इस अभियान में साथ देना चाहिए। युवा छात्रों और सामाजिक संघ संगठनों को भी खुल कर इस सांस्कृतिक प्रदूषण के खिलाफ आगे आना चाहिए। तभी हम अपनी संस्कृति को बचा पाएंगे और तभी शायद हम एक सभ्य समाज में जीने का दावा भी कर सकेंगे। 




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