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    समन्वय और जवाबदेही से दुर्गम क्षेत्रों में भी गृह प्रसव 2 प्रतिशत पर सिमटी

    -19 पंचायत बने गृह मुक्त प्रसव पंचायत 

    -पहले 40 प्रतिशत से अधिक थी गृह आधारित प्रसव 

    मुजफ्फरपुर। "पहले बच्चे के जन्म के समय मैंने घर पर प्रसव कराकर अनजाने में अपनी और बच्चे की जान को जोखिम में डाल दिया था। उस वक्त की घबराहट मुझे आज भी याद है। घर पर दाई ने कहा था कि सब ठीक है, पर खून बहना बंद नहीं हो रहा था। लेकिन, दूसरे बच्चे के लिए जब मैंने सरकारी अस्पताल चुना, तो फर्क साफ महसूस हुआ। डॉक्टरों की मौजूदगी ने मुझे जो सुरक्षा का अहसास दिया, वह घर पर कभी नहीं मिल सकता था। मैंने अपनी गलती सुधारी और सुरक्षित भविष्य चुना।"

    गायघाट प्रखंड के बाघा खाल की नीलम देवी का यह अनुभव मुजफ्फरपुर जिले के चार प्रखंडों की उन 19 पंचायतों की बदलती स्वास्थ्य तस्वीर का आईना है, जहाँ गृह प्रसव की दर 40 प्रतिशत से अधिक थी, जो अब सिमटकर मात्र 2 प्रतिशत पर आ गई है। यह उपलब्धि केवल आंकड़ों का खेल नहीं है, बल्कि उस सतत और ज़मीनी प्रयास का परिणाम है जिसने बिहार के उन दुर्गम और बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में गहरी जड़ें जमाए सामाजिक विश्वास को हिला दिया। जिले में जनवरी 2025 से मार्च 2025 गृह मुक्त प्रसव पंचायत में 3 प्रतिशत तथा अप्रैल 2025 से जुलाई 2025 तक 2 प्रतिशत गृह आधारित प्रसव हुए हैं। 

    इस सफलता से पहले की स्थिति जटिल थी। गयाघाट के बाघा खाल पंचायत में सामने आईं प्रमुख चुनौतियां बहुआयामी थीं। इन क्षेत्रों में संस्थागत प्रसव की राह में सबसे बड़ा रोड़ा भौगोलिक स्थिति थी। हर साल आने वाली विनाशकारी बाढ़ सड़कें तोड़ देती थी और स्वास्थ्य केंद्र तक पहुँचना एक जानलेवा यात्रा बन जाती थी। टूटी-फूटी सड़कों और परिवहन की कमी ने आपात स्थिति में गर्भवती महिलाओं को घर पर ही प्रसव कराने को मजबूर किया।

    कमजोर व अशिक्षित समुदायों में पीढ़ीगत घर पर प्रसव की परंपरा थी। इस गहरी जड़ें जमाई रूढ़ि को परिवार के बुजुर्गों का समर्थन मिलता था, जो अस्पताल जाने को महंगा और अनावश्यक मानते थे। वहीं सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति असंतोष और दूरी के कारण, लोग आसानी से उपलब्ध 'झोला छाप डॉक्टरों' पर अत्यधिक भरोसा करते थे। इनका तत्काल और सस्ता इलाज भले ही उन्हें आकर्षित करता था, लेकिन अक्सर माँ और बच्चे को बड़े जोखिम में डाल देता था।

    समाधान का ताना-बाना: तीन स्तंभों पर खड़ी सफलता

    स्वास्थ्य विभाग और सहयोगी संस्थाओं ने इन चुनौतियों को संबोधित करने के लिए एकीकृत, समयबद्ध और जवाबदेह रणनीति अपनाई। सफलता के तीन मुख्य स्तंभ निम्न रहे,जिनमें स्थानीय नेतृत्व का सशक्तिकरण,जवाबदेही और सशक्त निगरानी,ढांचागत सुविधाओं की पहुंच को आसान किया गया। 

    मुखिया के नेतृत्व ने बदली तस्वीर:

    यह बदलाव तब शुरू हुआ जब स्थानीय नेतृत्व ने जिम्मेदारी ली। बाघा खाल की मुखिया विभा कुमारी ने इस मिशन की कमान संभाली। उन्होंने केवल बैठकों से काम नहीं चलाया, बल्कि स्वयं नियमित रूप से गृह भ्रमण किया।

     वह कहती हैं कि "जब हमने तय किया कि हम अपनी पंचायत को 'गृह-मुक्त प्रसव' पंचायत बनाना है तो उसमें सबसे बड़ी चुनौती पुरानी रूढ़िवादिता थी, जिसे  तोड़ना जरूरी था। हमने गांव में घर-घर जाकर लोगों को समझाया कि अस्पताल में प्रसव माँ और बच्चे दोनों के लिए कितना सुरक्षित है। पंचायत के फंड से हमने आशा कार्यकर्ताओं को अतिरिक्त सहयोग दिया और जरूरत पड़ने पर वाहन की व्यवस्था भी की। आज हम गर्व से कहते हैं कि हमारी पंचायत में कोई भी प्रसव घर पर नहीं होता। यह सिर्फ स्वास्थ्य विभाग की नहीं, बल्कि पूरे गाँव की सामूहिक सफलता है। हमने एक मिसाल कायम की है।" बाघा खाल दक्षिणवारी टोला की लाभार्थी गुड़िया कुमारी कहती हैं कि जब मुखिया खुद घर आकर लोगों से बात करती हैं और अस्पताल जाने की सलाह देती हैं, तो लोगों का विश्वास बढ़ता है। इस स्थानीय जुड़ाव ने सामुदायिक विश्वास को बढ़ाया और संदेश दिया कि यह केवल एक सरकारी योजना नहीं, बल्कि उनकी अपनी सुरक्षा का मसला है।

    मॉनिटरिंग और सतत संपर्क बनी चेन: 

    जिला कार्यक्रम प्रबंधक रेहान अशरफ ने कहा कि "गायघाट ब्लॉक में 'गृह-मुक्त प्रसव पंचायत' की उपलब्धि सिर्फ एक प्रशासनिक लक्ष्य नहीं, बल्कि समुदाय की सोच में आया बड़ा बदलाव है। यह सफलता हमें दिखाती है कि जब आशा और एएनएम जैसी ज़मीनी स्तर की स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को सशक्त बनाया जाता है और उन्हें वित्तीय प्रोत्साहन मिलता है, तो वे सामुदायिक स्वास्थ्य को सीधे प्रभावित कर सकती हैं। इन पंचायतों में संस्थागत प्रसव दर 95% से अधिक हो गई है, जिससे मातृ मृत्यु दर  और शिशु मृत्यु दर  में उल्लेखनीय कमी आई है। हमारा लक्ष्य अब इस मॉडल को ब्लॉक की शेष पंचायतों में भी सफलतापूर्वक लागू करना है, ताकि हर महिला को सुरक्षित और सम्मानजनक प्रसव का अधिकार मिल सके।'

    पीरामल के मो. नसीरुद्दीन होदा ने बताया कि इस मॉडल की सबसे बड़ी ताकत कठोर मॉनिटरिंग थी। प्रभारी चिकित्सा पदाधिकारी के स्तर पर आशा, एएनएम और सीएचओ के कार्य की लगातार और सघन निगरानी की गई। शत प्रतिशत ट्रैकिंग सभी एएनसी विजिट सुनिश्चित किए गए। सतत संपर्क फ्रंटलाइन वर्कर्स ने प्रसूताओं से फोन के माध्यम से लगातार संपर्क बनाए रखा, जिससे उन्हें शून्य देरी पर अस्पताल पहुंचाया जा सके। इस 'गंभीरता' ने आशा और एएनएम के काम में पेशेवराना दृष्टिकोण सुनिश्चित किया। 

    ढांचागत समाधान:

    गायघाट के प्रभारी चिकित्सा पदाधिकारी डॉ एन जी रब्बानी बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में एम्बुलेंस की सुनिश्चित और समय पर पहुँच गेम चेंजर साबित हुई। परिवहन के डर को खत्म करने के लिए, एम्बुलेंस सेवाओं को 24x7 और जवाबदेह बनाया गया। "हमने सिर्फ कागज़ों पर काम नहीं किया, बल्कि जमीन पर उतरकर हर कारक पर फोकस किया। खासकर एम्बुलेंस की पहुँच और आशाओं की मॉनिटरिंग सबसे महत्वपूर्ण रही। इस सख्ती ने ही 40% की दर को 5% पर ला दिया।"

    एक जीवन रक्षक मॉडल जो दोहराया जा सकता है:

    मुजफ्फरपुर का यह मॉडल अब एक शक्तिशाली उदाहरण है। इसने दिखाया है कि मानवीय हस्तक्षेप, मजबूत समन्वय और कठोर जवाबदेही का मेल दुर्गम क्षेत्रों में भी जीवन रक्षक परिणाम दे सकता है। 

    यह सफलता सिर्फ आंकड़ों तक सीमित नहीं है, बल्कि हजारों माताओं और शिशुओं के सुरक्षित जीवन की गारंटी है। स्वास्थ्य विभाग अब इस सफल हस्तक्षेप को जिले के अन्य हिस्सों में भी दोहराने की योजना बना रहा है, ताकि संस्थागत प्रसव को शत-प्रतिशत के लक्ष्य तक पहुँचाया जा सके। यह मॉडल देश के अन्य हिस्सों में भी लागू किया जा सकता है जहां गृह प्रसव एक बड़ी चुनौती बनी हुई है।

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